रायपुर। छत्तीसगढ़ के पारंपरिक पर्वों में से एक भाद्रपद अमावस्या को मनाया जाने वाला पोला पर्व इस बार कोरोना महामारी के चलते सादगी से मनाया जाएगा। हर साल बैल दौड़ प्रतियोगिता में आसपास के गांवों से अनेक बैलों का श्रृंगार करके किसान अपने साथ लाते थे और बैलों की दौड़ प्रतियोगिता होती थी। इसे देखने के लिए हजारों लोगों की भीड़ जुटती थी। इस बार बैल दौड़ प्रतियोगिता को कोरोना के चलते स्थगित कर दिया गया है। बैलों की पूजा के बाद बच्चे मिट्टी के बैल दौड़ाएंगे। बाजारों में मिट्टी के बैल बिकने लगे हैं।
बैलों का सम्मान करने मनाते हैं पर्व
पंडित मनोज शुक्ला के अनुसार पोला पर्व के दौरान खरीफ फसल की तैयारी हो चुकी होती है। खेतों में निंदाई, गुड़ाई का काम निपट जाता है। ऐसी मान्यता है कि पोला पर्व के दिन अन्ना माता गर्भ धारण करती हैं, धान के पौधों में दूध भरता है। बैलों को सम्मान देने के उद्देश्य से किसान पोला पर्व पर बैलों की पूजा करते हैं। रात्रि में गांव के पुजारी, मुखिया, गांवों की सीमा में स्थापित देवी-देवता की पूजा करते हैं। पूजा में वह व्यक्ति नहीं जाता जिसकी पत्नी गर्भवती हो।
इन व्यंजनों का लगेगा भोग
देवी, देवता और बैलों को गुड़हा, चीला, अनरसा, सोहारी, चौसेला, ठेठरी, खुरमी, बरा, मुरकू, भजिया, मूठिया, गुजिया, तसमई आदि छत्तीसगढ़ी व्यंजनों का भोग लगाया जाएगा।
बैलों का करेंगे श्रृंगार
किसान गौमाता और बैलों को स्नान कराकर श्रृंगार करेंगे। सींग और खुर यानी पैरों में माहुर, नेल पॉलिश लगाएंगे, गले में घुंघरू, घंटी, कौड़ी के आभूषण पहनाकर पूजा करेंगे।
बच्चे फोड़ेंगे खिलौने
ग्रामीण इलाकों में युवतियां नंदी बैल, साहड़ा देव की प्रतिमा स्थल पर पोरा पटकने जाएंगी। नंदी बैल के प्रति आस्था प्रकट करने के लिए अपने-अपने घर से लाए गए मिट्टी के खिलौने को पटककर फोड़ेंगी।
पोलासुर का वध किया था तो पोला नाम पड़ा
मान्यता है कि कान्हा जब छोटे थे और वासुदेव-यशोदा के यहां रहते थे, तब कंस ने कई बार कई असुरों को उन्हें मारने भेजा था। एक बार कंस ने पोलासुर नामक असुर को भेजा था, जिसे भी कृष्ण ने मार दिया था। वह दिन भाद्रपद अमावस्या का था इसलिए इसे पोला कहा जाता है।