मां काली के दरबार में अब ‘रसीद पूजा’ – श्रद्धा पर व्यापार का शिकंजा

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रायपुर के प्राचीन काली मंदिर में नवरात्रि से पहले भक्तों के सामने ‘श्रृंगार शुल्क’ की लिस्ट टांग दी गई। सवाल उठता है कि आस्था का केंद्र बने मंदिर क्या अब वाकई धर्म से ज़्यादा कारोबार का ठिकाना बन रहे हैं?

 

रायपुर के ऐतिहासिक काली मंदिर में अब माता के श्रृंगार और आरती के लिए 3100 से 5100 रुपये तक की रसीद अनिवार्य कर दी गई है। पहले जहां श्रद्धा ही पर्याप्त थी, अब वहां भक्तों की जेब ही भक्ति का पैमाना बन चुकी है।

 

रायपुर का आकाशवाणी चौक, जहां मां काली का प्राचीन मंदिर सदियों से आस्था का प्रतीक रहा है। यह वही मंदिर है, जहां हर वर्ग का व्यक्ति बिना भेदभाव के प्रवेश करता था और मां के चरणों में अपनी श्रद्धा अर्पित करता था। पहले यहां की परंपरा ऐसी थी कि श्रृंगार से लेकर प्रसाद तक, सबकुछ भक्तों की स्वेच्छा पर आधारित था। कोई 11 रुपये चढ़ाए या 101 रुपये, माता का श्रृंगार और प्रसाद दोनों हो जाते थे। यही मंदिर की खूबसूरती थी कि यहां आस्था की कीमत नहीं होती थी।

 

मगर इस बार नवरात्रि से पहले जो तस्वीर भक्तों के सामने आई है, उसने सभी को हैरत में डाल दिया। मंदिर में बाकायदा एक बड़ा पोस्टर चिपकाकर ‘श्रृंगार शुल्क सूची’ लगा दी गई है। इसमें लिखा है –

पहला श्रृंगार: 5100 रुपये

दूसरा श्रृंगार: 3100 रुपये

तीसरा श्रृंगार: 3100 रुपये

चौथा श्रृंगार: 5100 रुपये

पांचवां श्रृंगार: 5100 रुपये

रात्रि श्रृंगार: 3100 रुपये

यानि अब भक्ति भी “स्लॉट” और “रेट” के हिसाब से मिलेगी।

 

आस्था की जगह कारोबार का दबदबा

 

पहले भक्त कहते थे – “मां को भेंट करनी है” और जो दिल में आया, वही भेंट कर दी। लेकिन अब भक्तों से कहा जा रहा है – “पहले रसीद कटवाइए, तभी श्रृंगार होगा।” यह बदलाव भक्तों की आत्मा को कुरेद रहा है। जिस मंदिर ने पीढ़ियों तक स्वेच्छा और आस्था की मिसाल कायम की, वही मंदिर अब रेट कार्ड के सहारे भक्ति बेचता दिखाई दे रहा है।

 

गरीब भक्तों के लिए ताले

 

यह सवाल भी बड़ा है कि गरीब भक्त कहां जाएं? जो दिहाड़ी मज़दूरी करने वाला व्यक्ति मां के दरबार में दो फूल लेकर आता था, उसका श्रृंगार अब कहां से होगा? जब तक जेब ढीली न हो, तब तक मां की पूजा का हक़ मानो छिन चुका है। भक्ति पर पैसों की मुहर लग चुकी है और यही इस पूरे घटनाक्रम की सबसे कड़वी सच्चाई है।

 

ट्रस्ट का तर्क और जनता की पीड़ा

 

मंदिर प्रबंधन का तर्क है कि ये सब “दान राशि” है, पर जब दान अनिवार्य कर दिया जाए और बिना रसीद के श्रृंगार न हो, तो यह दान नहीं बल्कि शुल्क बन जाता है। आस्था और शुल्क का यह घालमेल भक्तों को कटघरे में खड़ा करता है – आखिर मां का दरबार भी अब नोटों के हिसाब से क्यों चलने लगा?

 

परंपरा से विचलन

 

मां काली का यह मंदिर हमेशा से रायपुर की धार्मिक पहचान का हिस्सा रहा है। यहां की परंपरा यही रही है कि भक्ति में समानता हो, भले वह छोटा प्रसाद हो या बड़ा श्रृंगार। लेकिन इस “नए प्रयोग” ने परंपरा को ठेस पहुंचाई है। भक्ति का भाव टूट रहा है और लोगों में यह सवाल गहराने लगा है कि क्या मंदिर अब धर्म की जगह “धंधे” का दूसरा नाम बन चुके हैं?

 

श्रद्धा जब तक स्वेच्छा पर टिकी रहती है, तभी तक पवित्र रहती है। जैसे ही उस पर मूल्य टैग चिपका दिया जाता है, भक्ति का अर्थ बदल जाता है। रायपुर के इस काली मंदिर का हाल भी यही कहता है – अब मां का श्रृंगार भक्त की श्रद्धा से नहीं, बल्कि भक्त की जेब से तय होगा। काली मन्दिर ट्रस्ट को गुरुद्वारा ट्रस्ट से सीख लेनी चाहिए गुरुव्दारा कमेटी देश हित और जनता के लिए काम करता है और ये ट्रस्ट काली माॅ के भक्तो को लुटने का काम करती है ये कहा तक सही है