बलरामपुर जिले के पिछड़े, जनजातीय और पहाड़ी अंचलों में शिक्षा की रोशनी पहुंचाने का मुख्यमंत्री के नेतृत्व में शुरू हुआ, वह अब जमीन पर सार्थक रूप ले रहा है। नीति के अंतर्गत विद्यालयों के समुचित युक्तियुक्तकरण से प्रदेश के सबसे सुदूरवर्ती अंचलों तक शिक्षा की पहुंच संभव हो रही है। इसका उदाहरण है बलरामपुर विकासखंड का अति दुर्गम गांव बचवार। जहां शिक्षा अब केवल एक अधिकार नहीं, बल्कि एक परिवर्तन की जीवंत कहानी बन चुकी है। बचवार तक न सड़कें हैं, न परिवहन।
यहां तक पहुंचने के लिए 8 से 10 किलोमीटर लंबी पहाड़ी पगडंडी पार करनी होती है, जो घने जंगलों और वीरान पहाड़ियों के बीच से होकर गुजरती है। लेकिन इसी दुर्गम मार्ग से उम्मीद की एक नई सुबह उतर रही है और इसका श्रेय उन कर्तव्यनिष्ठ शिक्षकों को जाता है, जिन्होंने अपने पद को नहीं, बल्कि सेवा को अपना धर्म माना। भौगोलिक दुर्गमता के कारण गांव में आज भी विकास की मूलभूत सुविधाएं नहीं पहुंचीं, लेकिन शिक्षकों का संकल्प पहले पहुंच गया।
अब हर सुबह शिक्षा की घंटी बजाती है
सीमित संसाधन और एकांतता के बावजूद यहां के शिक्षक न केवल बच्चों को पढ़ा रहे हैं, बल्कि शिक्षा को गांव की चेतना में शामिल भी किए हैं। मुख्यमंत्री की युक्तियुक्तकरण नीति ने विद्यालयों के व्यवस्थापन और संसाधनों के कुशल उपयोग का मार्ग तो प्रशस्त किया, लेकिन बचवार जैसे गांवों में इस नीति को जीवंत करने वाले असली नायक वे शिक्षक हैं, जिन्होंने आदिवासी बच्चों के भविष्य को उजास देने के लिए अपने जीवन की सरलता छोड़ दी, वे शिक्षक जो जंगलों की नीरवता में हर सुबह शिक्षा की घंटी बजाते हैं।
किताबें, स्टेशनरी का सामान कई किलोमीटर पैदल चढ़ाई चढ़कर लाए
नए प्रधानपाठक जब पहली बार गांव पहुंचे, तो उनके साथ था एक बैग, कुछ किताबें, स्टेशनरी और रोजमर्रा का सामान, जिसे वे कई किलोमीटर पैदल चढ़ाई चढ़कर लाए थे। रास्ता कोई आसान नहीं था पथरीली पगडंडियां, जंगल की नीरवता और पहाड़ियों की खामोशी। लेकिन उनके हौसले किसी ऊंचाई से कम नहीं थे। उनके आने के कुछ ही दिनों में बच्चों की उपस्थिति बढ़ी, समुदाय में संवाद बढ़ा और शिक्षा को लेकर उत्साह की एक नई लहर दिखाई देने लगी। गांव के बुजुर्गों और अभिभावकों ने भी महसूस किया कि स्कूल अब सिर्फ एक भवन नहीं, एक उम्मीद बन चुका है।