सवाल आख़िरी तक सत्ता और संगठन के कांग्रेसी कर्णधारों का पीछा क़तई नहीं छोड़ेंगे। बात निकलेगी, ज़रूर निकलेगी और तय मानिए कि बात दूर तलक़ जाएगी भी
अनिल पुरोहित
वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक
सत्ता में रहकर जिन राजनीतिक विकारों का शिकार होने में भारतीय जनता पार्टी को छत्तीसगढ़ में 15 साल का वक़्त लगा था और जनता ने पक्का मन बनाकर उसे न केवल सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाया था, अपितु विधानसभा में संख्याबल की दृष्टि से दयनीय स्थिति में ला दिया था, उन विकारों की शिकार कांग्रेस सत्ता में आते ही इतनी तेजी से हुई और इतनी ज्यादा हुई कि छत्तीसगढ़ की जनता ने कांग्रेस की सरकार को छत्तीसगढ़ पर असहनीय बोझ मानकर ‘अपने मन से उतारने में’ जरा भी देर नहीं की और पाँच साल में जनता जनार्दन ने भाजपा को वापस ‘अपने मन में उतारने’ का संकल्प साकार कर 75 पार का दंभ भरती कांग्रेस को अब तक के हुए पाँच चुनावों में सबसे न्यूनतम संख्याबल के साथ विपक्ष की भूमिका सौंप दी। इन चुनाव नतीजों ने राममनोहर लोहिया की याद ताजा कर दी जो कहते थे कि ज़िंदा क़ौमें पाँच साल इंतज़ार नहीं करतीं। छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव-2023 के नतीजों को इसी परिप्रेक्ष्य में समझा जा सकता है जिसने तमाम एक्ज़िट पोल को धता बताकर भाजपा की भारी बहुमत की सरकार बनाने का एक्ज़ेक्ट पोल सामने रखकर सभी राजनीतिक पंडितों को खामोश कर दिया है।
छत्तीसगढ़ के चुनाव में कांग्रेस की हार सत्ता के गुमान में जनादेश के अपमान का परिणाम है। सत्तावादी अहंकार से लबरेज कांग्रेस आख़िर तक जन-मन को भाँपने में नाकारा साबित हुई और जिस चुनावी मैदान में वह टहलने के लिए उतरी थी, उस पर उसे हाँफते हुए सत्ता की चौखट से बाहर ही ढेर होते इस प्रदेश ने देखा। सरप्लस बिजली वाले छत्तीसगढ़ में बिजली बिल हाफ का वादा करके सत्ता में आई कांग्रेस की सरकार ने अनियमित और अघोषित बिजली कटौती को लेकर उठी आवाज को दबाने के लिए जिस फुर्ती से दो पत्रकारों पर राजद्रोह का मुकदमा दर्ज किया, वहीं से पत्रकार सुरक्षा का ढोल पीटती कांग्रेस के इरादे समझ आ गए थे, पूत के पाँव पालने में नज़र आ गए थे। मंत्रियों से लेकर विधायकों तक और कांग्रेस के नेताओं, उनके परिजनों, रिश्तेदारों, मित्रों तक के सत्तावादी अहंकार के प्रदर्शन का यह सिलसिला कांग्रेस के पूरे पाँच साल के शासनकाल में कभी बैंक कर्मी के साथ मारपीट, तो कभी अफसरों के साथ गाली-गलौज, धमकी-चमकी और कभी अपने निज सहायकों के सार्वजनिक अपमान और कभी महिलाओं के साथ बदसलूकी व अनाचार के रूप में चलता रहा। अपने किए वादों से मुकरने का जैसा राजनीतिक चरित्र छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकार ने पाँच वर्षों में प्रदर्शित किया, पुलिस जवानों के परिजनों पर, वादों की याद दिलाकर भर्ती और रोजगार की मांग करते युवाओं पर, आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं, संविदा व अस्थायी/दैनिक वेतनभोगी कर्मचारियों पर आतंक का कहर बरपाया, उसने जन आक्रोश का एक ऐसा ज्वालामुखी तैयार किया कि आज उसके लावे में झुलसी कांग्रेस कराह रही है। अपनी इस नियति की पटकथा कांग्रेस के मदांध सत्ताधीशों ने खुद अपने हाथों पाँच सालों में लिखी है। सत्ता संस्थान को अपने राजनीतिक अंतर्कलह का केंद्र बनाकर सबने अपनी-अपनी महत्वाकांक्षाओं को अपने राजनीतिक कद से भी ज्यादा बड़ा माना और नतीजा यह हुआ कि प्रदेश में न तो कानून के राज का कोई ख़ौफ़ रह गया था, न जनता की तकलीफें सत्ताधीशों और सामंती नौकरशाहों को विचलित कर रही थीं। चहुँओर माफियाओं ने जंगलराज जैसे हालात कायम कर रखे थे। बढ़ते अपराधों ने कदम-कदम पर लोगों को असुरक्षित और सशंकित कर रखा था, तीन साल की मासूम बच्चियों से लेकर वृद्ध महिलाएँ तक रोज वहशी दरिंदों के हाथों अपनी अस्मत को लहूलुहान होते देखने को विवश थीं पर सरकार न कुछ देखने को, न सुनने को और न ही कुछ बोलने को तैयार थी। महिला सशक्तीकरण कांग्रेस का राजनीतिक जुमला बनकर रह गया। गंगाजल की सौगंध खाकर पूर्ण शराबबंदी का किया गया वादा केवल झाँसा साबित हुआ और प्रदेश की मातृ-शक्ति इसके दुष्परिणामों की शिकार होकर अपने परिवार को टूटते-बिखरते देखती रही। यह विश्वासघात की पराकाष्ठा थी। सूखे नशे के काले कारोबार के साथ ही ऑनलाइन सट्टेबाजी की अंधी गलियों में धकेलकर युवाओं के भविष्य से खिलवाड़ किया जाता रहा, उन्हें आख़िरी के कुछ महीनों को छोड़कर उस बेरोजगारी भत्ता तक के लिए मोहताज रखा गया जिसके कसीदे पढ़ते हुए और इसके लिए बजट के प्रावधानों की व्याख्या करते हुए 2018 के विधानसभा चुनावों के लिए घोषणा पत्र जारी करते समय उस समिति के प्रमुख टीएस सिंहदेव ने राहुल गांधी को ‘सर-सर’ संबोधित करने का रिकॉर्ड अपने नाम दर्ज कराया था। रोजगार मुहैया कराने के नाम पर कोरोना काल में शराब कारोबार की कोचिया बनी भूपेश सरकार ने इन प्रतिभासंपन्न युवाओं को डिलीवरी ब्वॉय बना डाला और पीएससी परीक्षाओं में घोटालों का करतब दिखाकर कांग्रेस नेताओं और बड़े नौकरशाहों के परिवार वालों को नियुक्ति दे दी और युवाओं के सपनों को चूर-चूर कर दिया।
बीते पाँच सालों में शराब, कोयला परिवहन, गौठान, गोबर, पीडीएस राशन, जमीन, रेत, प्रधानमंत्री अन्न योजना के चावल में भ्रष्टाचार और घोटालों के जितने मामले सामने आए, उसने भूपेश सरकार के राजनीतिक चरित्र को इतना दागदार कर दिया था कि अंत तक वह इसे धो नहीं सकी। महादेव एप पर पाबंदी लगाने का अधिकार अपने पास होते हुए भी प्रदेश सरकार ने उसे बंद करने का काम नहीं किया और इसके लिए भी वह केंद्र सरकार पर ही आख़िर तक ठीकरा फोड़ती रही। अपने ऊपर लगे आरोपों के जवाब में वह भाजपा की पूर्ववर्ती राज्य सरकार को भ्रष्ट बताने में ही लगी रही। दूसरों के दोष दिखाकर अपने दोषों को सही ठहराने की इस राजनीतिक निर्लज्जता को प्रदेश ने सिरे से खारिज कर दिया है। विडम्बना यह रही कि भ्रष्टाचार के जिन मामलों के लिए कांग्रेस के नेता और स्वयं निवर्तमान मुख्यमंत्री भूपेश बघेल व उनकी सरकार के लोग भाजपा सरकार पर हमलावर हो रहे थे, पाँच साल तक सत्ता में रहकर भी उनमें से किसी भी एक मामले की जाँच कराने का वे न तो नैतिक साहस दिखा सके, न ही राजनीतिक इच्छाशक्ति जुटा सके! उल्टे, कोरोना सेस का हिसाब देने से प्रदेश सरकार मुँह चुराती रही परंतु मुख्यमंत्री बघेल समेत तमाम कांग्रेस नेता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर पीएम केयर की राशि को लेकर सवाल दागते रहे। केंद्र सरकार की उन जनकल्याणकारी योजनाओं को रोककर ‘बदलापुर की राजनीति’ इस स्तर तक लेकर चले गए कि प्रदेश के लाखों गरीब परिवारों को प्रधानमंत्री आवास से ऐलानिया यह कहकर वंचित कर दिया कि इसमें चूँकि ‘प्रधानमंत्री’ शब्द जुड़ा है, इसलिए इसका पूरा पैसा केंद्र सरकार दे। भाजपा ने सवाल उठाया कि राजीव मितान क्लब के लिए जो पैसा प्रदेश के सरकारी खजाने से खर्च हो रहा है, वह क्या ‘गांधी परिवार’ वहन कर रहा है? अपने ऊपर उठते सवालों का जवाब देने के बजाय कांग्रेस और उसकी प्रदेश सरकार मर्यादाओं को ताक पर रखकर सियासी लफ्फाजियों के जरिए समाज को जाति. धर्म के राजनीतिक खाँचों में बाँटने का उपक्रम करती रही। जातिगत जनगणना का उछाला गया जुमला इसी अभियान की एक कड़ी था, जिसे प्रदेश की जनता ने पूरी सख्ती से नकारकर एक नई राजनीति के सूत्रपात का जनादेश दिया है। आरक्षण के नाम पर पूरे कार्यकाल में भूपेश सरकार और कांग्रेस के लोग इरादतन राजनीतिक पाखंड का प्रदर्शन कर राज्यपाल तक के पद की संवैधानिक गरिमा और विश्वसनीयता पर सवाल उठाते रहे लेकिन क्वांटीफायबल डाटा की वह फाइल राज्यपाल को नहीं सौंपी, जिसकी मांग राजभवन करता रहा। इसके अलावा सीबीआई को छत्तीसगढ़ में प्रतिबंधित करके और 2019 के लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री को आईना भेजकर मुख्यमंत्री बघेल ने जिस राजनीतिक अपसंस्कृति का बीजारोपण किया था, वह भी कांग्रेस के इस पराभव की एक वज़ह रही है। प्रदेश में ईसाई मिशनरियाँ आदिवासी बहुल इलाकों में जबरिया धर्मांतरण करा रही थीं और प्रदेश सरकार आदिवासी संस्कृति और अपनी आस्था व परंपराओं की रक्षा के लिए सामने आए लोगों को ही मनमानी धाराएँ थोपकर जेल दाख़िल करती रही। भगवा झंडे के अपमान से उद्वेलित बहुसंख्यक समाज का आक्रोश कवर्धा में फूटा तो प्रदेश सरकार तुष्टीकरण पर उतर आई, बिरनपुर में लव ज़िहाद का विरोध करने पर अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों ने मॉब लिंचिंग कर भुनेश्वर साहू की निर्मम हत्या कर दी और उन आरोपियों, जिनमें एक मंत्री का बेहद क़रीबी था, को बचाने के फेर में दूसरे मामले तैयार कर बहुसंख्यक समाज के युवकों को जेल में डालकर एक नए तरह का आतंकराज कायम किया गया।
इधर अपराधों की नित-नई कलंक गाथाएँ लिखी जा रही थीं, वहीं दूसरी तरफ नक्सलवाद खून की नदियाँ बहाने पर आमादा हो गया। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह नक्सलियों की मांद में जाकर इस समस्या का समाधान तलाशने की ज़द्दोज़हद कर रहे थे और नक्सलियों की धमकी से दुबकी मुख्यमंत्री बघेल की सरकार शहीदों का अंतिम संस्कार तक उनके गाँव में नहीं करा पा रही थी। एक सरकार के लिए, एक संवेदनक्षम लोकतांत्रिक शासन-व्यवस्था के लिए इससे अधिक शर्मनाक और क्या हो सकता था? प्रदेश पूछता रहा कि कांग्रेस और नक्सलियों के बीच यह रिश्ता क्या कहलाता है, और नक्सली भूपेश सरकार को ‘अपनी सरकार’ बताकर टारगेट किलिंग कर भाजपा नेताओं की ज़िंदगियाँ तमाम करते रहे, बारुदी विस्फोट करके जवानों को मौत की नींद सुलाते रहे, पुलिस की मुखबिरी का शक जताकर निर्दोष आदिवासियों, नागरिकों, अफसरों-कर्मचारियों का क़त्ल-ए-आम करते रहे। कांग्रेस के लोग खुलेआम भाजपा का प्रचार करने वालों को मार डालने की धमकी देते रहे, (चुनाव के दौरान इस धमकी पर नक्सलियों ने अमल भी किया और पहले अक्टूबर में मोहला-मानपुर-अंबागढ़ चौकी क्षेत्र के ग्राम सरखेड़ा में बिरझू तारम और फिर नवंबर में नारायणपुर क्षेत्र में ग्राम धौड़ाई में सभा संबोधित करते हुए रतन दुबे की हत्या कर दी), खुद मुख्यमंत्री बघेल बजरंग दल के कार्यकर्ताओं को ‘गुण्डा’ कहते सुने गए, पर इसे हेट स्पीच नहीं माना गया और शासन-प्रशासन हाथ-पर-हाथ धरे बैठा रहा, लेकिन सरकार के खिलाफ जब-जब सोशल मीडिया पर सवाल उठे, जब-जब सनातन धर्म को लेकर कोई पोस्ट सामने आई, भूपेश सरकार ने उसे हेट स्पीच बताकर उन सबके खिलाफ़ मामले दर्ज करवाने में कोई देर नहीं की। ‘पाकिस्तान मुर्दाबाद’ या ‘हिन्दुस्थान ज़िंदाबाद’ भिलाई में एक सिख युवक की निर्मम हत्या हो गई और आरोपी मृतक के शव पर नाचते रहे, परंतु इस पर कार्रवाई करते शासन-प्रशासन के हाथ-पैर फूलते नजर आए। प्रदेश का कोई इलाक़ा ऐसा नहीं बचा था जहाँ सत्ता की धौंस दिखाकर अन्याय, आतंक और अत्याचार की पराकाष्ठा नहीं की गई हो। और, बात सिर्फ इतनी ही नहीं है। अपनों के साथ दगाबाजी करके सत्ता के गलियारों में नित-नए राजनीतिक षड्यंत्रों के जाल बुने गए ताकि कोई उनके मुकाबले अपने ऊँचे कद को साबित न कर पाए। आज कांग्रेस के वे दिग्गज, जिनकी हारने की कल्पना ख़ुद भाजपा के लोग नहीं कर पा रहे थे, चुनाव क्या यूँ ही हार गए हैं? क्या ‘भू-पे’ स्कीम से नहीं जुड़ने की क़ीमत इन दिग्गज नेताओं ने चुनाव हारकर चुकाई है? वे कौन लोग थे, जो एक ‘समुदाय विशेष’ के लोगों को मतदान के दिन शाम को मतदान से दूर रहने के लिए आर्थिक रुप से ‘पुरस्कृत’ कर रहे थे? उन्हें मतदान से विमुख करने के लिए किसने धनराशि मुहैया कराई? ये सवाल आख़िरी तक सत्ता और संगठन के कांग्रेसी कर्णधारों का पीछा क़तई नहीं छोड़ेंगे। बात निकलेगी, ज़रूर निकलेगी और तय मानिए कि बात दूर तलक़ जाएगी भी।