द कश्मीर इण्डिया फाइल्स

Chhattisgarh Crimes

ऐश्वर्य पुरोहित

जनवरी 1990 की 19वीं तारीख को रलीव-त्सलीव-गलीव (मुसलमान बनो, भागो या फिर मरो) के वीभत्स शोर के साथ शुरु हुए नरसंहार के बाद हिन्दुओं के करुण आर्तनाद ने धरती का स्वर्ग माने जाने वाली कश्मीरी घाटी की नीरवता भंग कर दी थी। खून-खराबे के इस दौर के बाद शुरू हुआ था पलायन का दौर- जब लाखों कश्मीरी पंडितों को अपनी मातृभूमि से बलात् विलग कर भागने को विवश किया गया, जो नही भागे, वे मौत के घाट उतार दिये गये । दो दिनों तक कानून भी अपने लम्बे हाथ बाँधकर इस्लाम द्वारा किए गए इस नरसंहार का मूक दर्शक बना रहा। शेष भारतीय समाज भी इसे कश्मीर की समस्या मानकर मौन साधकर बैठा था। और तीन दशक से भी ज्यादा समय से शरणार्थी शिविरों में रह रहे अपने बन्धुओं की सुध लेने की बजाय समूचा हिन्दू समाज पंथनिरपेक्षता की नकली रजाई ओढ़े अब तक सोता रहा है। लेकिन ‘द ताशकंद फाइल्स’ जैसी फिल्म के निर्देशक विवेक अग्निहोत्री की फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ सोते हुए हिन्दू समाज के ऊपर से यह रजाई उतारकर उसे जगाने का एक अपूर्व प्रयास है।

जनवरी 1990 में कश्मीर में जो कुछ हुआ था, उस सच को पुष्करनाथ पंडित के परिवार के इर्द-गिर्द घूमती कहानी के माध्यम से इस फिल्म में बताया गया है। 19 जनवरी की रात पुष्कर नाथ के बेटे की निर्मम हत्या, शरणार्थी शिविर में उनके परिवार की दशा और फिर एक दिन उनकी बहू और बड़े पोते की नृशंस हत्या, ये दास्तां केवल एक परिवार की ही नहीं थी बल्कि हर एक हिन्दू परिवार की थी। और यद्यपि यह फिल्म 1990 में कश्मीरी पंडितों के नरसंहार की पृष्ठभूमि पर बनी है तथापि मेरे विचारों में यह फिल्म पिछले 1300 वर्षों से भारत में इस्लाम द्वारा किये गये अपार नरसंहार की एक छोटी-सी झलक प्रस्तुत करती है। इस फिल्म का एक-एक दृश्य अत्याचार के उस मंजर को दर्शाता है जो भारत के हिन्दू समाज ने पिछले हजार से ज्यादा वर्षों से लगातार सहा है और आज भी सह रहा है। फिल्म का वह दृश्य जहाँ पुष्करनाथ के सामने उसके बेटे की निर्मम हत्या के बाद उसके खून में भीगे चावल बहू शारदा के मुख में ठूसा जाता है, उसे देखकर हम कल्पना कर सकते हैं कि कैसे इस्लाम कुबूल न करने पर बन्दा वैरागी के मुँह में उनके नवजात बेटे का माँस ठूसा गया होगा। पुष्करनाथ के बड़े पोते शिवा की हत्या का दृश्य देख बालक हकीकत राय, गुरु-पुत्रों और सम्भाजी राजे की हत्या के दृश्य सजीव हो उठते हैं। शारदा को आरे में चीरते देखकर भाई मतिदास को दी गई यातना भला कैसे याद नहीं आएगी। एक-एक कर 25 लोगों की हत्या के दृश्य में हमें उन सैकड़ों-हजारों-लाखों व्यक्तियों का चीत्कार सुनाई देता है, जिन्हें गजनवी, गोरी, खिलजी, बाबर, हुमायूँ, अकबर, औरंगज़ेब जैसे अनेक मुसलमानों ने अपनी इस्लामी सनक के चलते मौत के घाट उतारा था। कुल मिलाकर यह फिल्म इस्लाम के आगमन के बाद से हिन्दुओं पर हुए अत्याचारों का एक सजीव चित्रण है।

और इससे भी अधिक कश्मीर को आधार बनाकर निर्देशक ने भारत की सबसे प्रमुख समस्या ‘मुस्लिम समस्या’ का सटीक विश्लेषण किया है कि कैसे अल्पसंख्यक राग अलापकर नेपथ्य के पीछे अपनी संख्या बढ़ाता इस्लाम एक समय के बाद गैर-मुसलमानों के लिए उनकी मातृभूमि को नर्क में बदलकर रख देता है। जेएनयू की प्रोफेसर राधिका मेनन जैसे प्राध्यापक और बुद्धिजीवी वर्ग इस इस्लामी साजिश को डरे-सहमों की प्रतिक्रिया बताकर उसकी हौसला-आफजाई करता है। और आई.ए.एस. ब्रह्म दत्त और डी.जी.पी. जैसा भारत का प्रभावशाली वर्ग भी हाथ पर हाथ धरा बैठा रह जाता है। इतना ही नहीं इस फिल्म ने समस्या का समाधान भी बताने का प्रयास किया है। फिल्म के एक दृश्य में पुष्करनाथ अपने पोते और जेएनयू के छात्र कृष्णा पंडित को कहता है कि यहूदियों ने कभी दुनियों को यह भूलने नहीं दिया कि उनके साथ कैसा अत्याचार हुआ? इस बात का निहितार्थ यह है कि जब हिन्दुओं ने स्वयं ही अपने साथ हुए सभी अत्याचारों को भूला दिया तो भला दुनिया उन्हें क्यों याद रखेगी और फिर हिन्दुओं को न्याय मिलेगा कैसे? फिल्म के बिल्कुल अंतिम भाग में कृष्णा ने जिस तरह कश्मीरी पंडितों के साथ जनवरी 1990 में हुए अत्याचार को दुनिया के सामने रखा वैसा पूरे हिन्दु समाज को करना होगा और फिर एक साथ मिलकर भारत की इस ‘मुस्लिम समस्या’ का समाधान करना होगा।

इसीलिए मेरा यह मानना है कि प्रत्येक हिन्दू को यह फिल्म एक बार नहीं, बार-बार देखनी चाहिए ताकि हम गान्धार से अफगानिस्तान, सिन्ध और पंजाब से पाकिस्तान, बंगाल से बांग्लादेश बनाने का इस्लामी तरीका जान पाएँ। यह फिल्म हमें देखनी चाहिए ताकि हम नालन्दा के खण्डहरों, विजयनगरम् के भग्नावशेषों की कहानी जान सके; ताकि अयोध्या, मथुरा, काशी, सोमनाथ की मौन दास्तां सुन सकें। यह फिल्म हमें बार-बार देखनी चाहिए ताकि हम मोपला जनसंहार, कलकत्ते और नोआखाली के नरसंहार के साथ-साथ विभाजन की विभीषिका को याद कर अपने हृदय में मज़हबी अत्याचार और अन्याय के विरुद्ध संघर्ष की आग जला सकें। और मेरा तो यह मानना है कि हिन्दुओं से भी अधिक बार आज खौफ़ के साये की बात करने वाले मुसलमानों को यह फिल्म देखनी चाहिये ताकि वे खौफ़ के सही मायने समझ सकें। कुल मिलाकर यह फिल्म हर एक भारतीय को देखनी ही चाहिये। तथा इसे देखने के बाद कम-से-कम हिन्दुओं को तो नींद से जागना ही होगा ताकि आगे किसी निर्देशक को ‘द बंगाल फाइल्स’, ‘द केरल फाइल्स’ जैसी फिल्में बनाने की जरूरत न पड़े। और फिर भी यदि हम सचेत नहीं हुए तो क्या पता अगली कहानी पुष्करनाथ के परिवार की न होकर हमारी ही हो !!!

Exit mobile version