नहीं मिल रहा है वनवासियों को पीला सोना का वाजिब दाम, सताने लगी चिंता
पूरन मेश्राम/ छत्तीसगढ़ क्राइम्स
मैनपुर। वनांचल क्षेत्रों में पीला सोना के नाम से विख्यात महुआ वनवासियों के आजीविका का साधन होने के साथ ही साल भर में कम से कम 3 महीनों के लिए पर्याप्त आर्थिक स्रोत के रूप में माना जाता है। जंगलों में रहने वाले वनवासी महुआ पेड़ को अपना इष्ट देव मानते हुए कुलदेवता पुरखा में फूल को अर्पण करते हैं। शादी विवाह में महुआ के पान (डारा) का उपयोग गांव के झाकर पुजारी के द्वारा शादी के पूर्व मंडप में विराजित करने की परंपरा आदिवासी समाज में वर्षों से चली आ रही है। जंगलों में रहने वाले वनवासियों के द्वारा वर्षो पहले अपने शरीर को तरोताजा एवं तंदुरुस्त रखने के लिए भी महुआ फूल के लड्डू (चपेना) बनाकर उसका उपयोग भी किया करते थे। आधुनिकता के दौर में धीरे-धीरे इसका उपयोग कम होने लगा है।
जंगलों में निवास करने वाले वनवासियों के लिए प्रकृति प्रदत चार, तेन्दू, सरई,महुआ नैसर्गिक उपलब्ध होने के साथ ही आजीविका के मुख्य स्रोत के रूप में भी माना जाता है।
अभी सीजन महुआ फूल का चल रहा है जिसके संग्रहण के लिए ग्रामीण अंचलों में बच्चें, बूढे़, जवान, महिला पुरुष सभी 4 बजे पहट के ही खाने पीने के सामान भात,पेज ,बासी चटनी लेकर अपने-अपने टिकरा खेत एवं जंगलों की ओर चले जाते हैं। अधिकांश परिवार के पास लगभग न्यूतम 15 से 30 महुआ का पेड़ रहता ही है। जिनका हर रोज संग्रहण करते हुए दोपहर शाम तक अपने अपने घर पहुंचते हैं। जिनके पास महुआ का पेड़ नहीं होता है उन लोग जंगलों की तरफ जा करके महुआ बिनते है। किसी के पास ज्यादा महुआ के पेड़ होने से नहीं बीन पाने की स्थिति में परस्पर मैत्री भाव से वे अधिया हिस्सेदारी में भी बीनने के लिए दे देते है। मचान में बैठकर करते हैं पीला सोना की सुरक्षा पीला सोना की सुरक्षा के लिए गांव के मवेशियों पर प्रबंधन भी किया करते हैं ताकि रात्रि में जाकर गिरे हुए महुआ को ना खाएं। अधिकांश ग्रामीण अपने-अपने टिकरा खेत में मचान रहने के झोपडी़ बनाकर रात्रि कालीन सेवा भी देते हैं ताकि मवेशियों से महुआ फूल को बचाया जा सके जिसके कारण कभी-कभी जंगली जानवरों से भी ग्रामीणों को दो चार होते हुए देखा गया है। इस सीजन में दिन के समय गाँव मे वीरानी छाई रहती है। दिन रात मेहनत करते हुए एक परिवार कम से कम न्यूनतम 6 क्विंटल से 17 क्विंटल तक महुआ का संग्रहण कर लेते हैं। कम से कम 3 महीना दैनिक जरूरतों को पूरी करने के लिए महुआ फूल में ही वनवासी निर्भर रहते हैं।
सही कीमत नहीं मिलने से चिंतित है वनांचलवासी आज महुआ को लघु वनोपज के श्रेणी में रखते हुए सरकार द्वारा समर्थन मूल्य तय किया गया है। लेकिन इधर समितियों में खरीदी का स्थिति नहीं दिख रहा है। शुरुआती दौर में व्यापारियों के द्वारा महुआ के दाम 40 रूपए से 45 रूपए निर्धारण किया गया था लेकिन वर्तमान स्थिति में 20 से 30 रूपए के दर में महुआ की खरीदी किया जा रहा है।
सरकार के द्वारा कहा जाता है महुआ का विदेशों में भी मांग के साथ ही इससे औषधि निर्माण भी किया जा रहा है। उसके बावजूद कम कीमत में महुआ(पीला सोना) के दाम से ग्रामीण अंचलों के मजदूर किसान बेहद परेशान होने लगे हैं।
व्यापारियों के द्वारा 20 से ₹30 में ही खरीदी करते हुए ऊपर में ही इसका दाम गिर जाने से ऐसा स्थिति आने का भी हवाला दिया जा रहा है। वाजिब दाम नहीं मिलने के कारण आदिवासी परिवारों के ऊपर आर्थिक मंदी आना स्वाभाविक है। इसका मुख्य कारण सरकार एवं व्यापारियों के द्वारा महुआ के दामों पर एकाएक गिरावट कर दिया जाना ही है। ग्रामीण अंचलों के बाजारों में गांव वालों ने जब तक के सही कीमत व्यापारियों के द्वारा नहीं दिया जाता है तब तक महुआ को बिक्री करने के लिए बाजार में नहीं लाने की भी बात कर रहे हैं। जिसका असर कुछ बाजारों में देखने को भी मिला। महुआ का वाजिब दाम वनवासियों को शुरू से ही नहीं मिल पाता जिसके कारण ओने पौने दामों में बिचौलियों के पास बिक्री के लिए मजबूर रहते हैं। तत्कालीन जरूरतों को पूरी करने के लिए मजबूरी में ऐसा कदम ग्रामीण अंचलों के वनवासियों को उठाना पड़ता है। इस समय बंपर महुआ फूल आने से संग्रहण कर्ताओं द्वारा नही बीन पाने से महुआ पेड़ के नीचे ही देखरेख में उसे वैसा ही छोड़ दे रहे है सुखने के बाद उसे झाड़ू से साफ करके घर में लाकर कंकड़ पत्थर पान पत्ते को साफ करके रख रहे हैं। ग्रामीणों में खुशी तो देखी जा रही है।
लेकिन एकाएक दाम गिरने से चेहरों में साफ मायूसी भी झलक रही है। चार,चिरौंजी, तेंदू,महुआ मिलते हैं जंगल से, इसका रखवाला क्यों नहीं रहते मंगल से, छत्तीसगढ़ को इसी संपदा से नाज है, इसका रखवाला क्यों नहीं पहना ताज है,बस यही वनवासी भाइयों का सवाल है।