अंग्रेजी के प्रयोग से प्राणहीन होती हिंदी : हिंदी में अंग्रेजी की मिलावट से हिंदी विकृत और प्राणहीन होने लगी। एक ओर विकृतियां बिना सोचे समझे दूसरी भाषा के शब्द लेने से आती है
कोई भी भाषा सदैव एक सी नहीं रहती बदलावों को ग्रहण करके ही आगे बढ़ती है, इस यात्रा में देश के इतिहास की भी अहम भूमिका होती है, वहां कहां-कहां से आकर लोग बसे, उनकी भाषा क्या थी, इन सब बातों का भाषा की विकास यात्रा पर बहुत असर पड़ता है। हिंदी में मुसलमानों के आने पर अरबी फारसी के कुछ शब्द इस प्रकार घुल मिल गए कि लगता ही नहीं कि वो किसी दूसरी भाषा से लिए गए शब्द हों। उर्दू का तो जन्म ही अरबी फारसी और हिंदी भाषाओं के मिलने से हुआ था। अंग्रेजों के आने पर उन्होंने अंगे्रजी का प्रचार और प्रसार किया। उच्च शिक्षा पाने के लिए अंग्रेजी सीखना जरूरी था। उच्च शिक्षा कम ही लोग पाते थे, इसलिए उस समय का जनमानस अंग्रेजी से इतना नहीं जुड़ा था जितना आज जुड़ा है। भारत की सरकार की गलत शिक्षा नीतियों के कारण, जो भी लोग अपने बच्चों को अंगे्रजी माध्यम के निजी स्कूलों मे पढ़ा सकते हैं, वो सरकारी हिंदी माध्यम के स्कूल में अपने बच्चे नहीं भेजते। इसका परिणाम यह हुआ कि माता पिता अपने बच्चों को होश संभालते ही अंगे्रजी के शब्दों का ज्ञान देने लगे, वाक्य तो हिंदी में ही रहते पर शब्द अंग्रेजी के शब्द प्रचुर मात्रा मे होने लगे जैसे ‘‘देखो बेटा वो काइट कितनी हाइट पर है इसलिए स्मॉल दिख रही है ब्लू एंड व्हाइट कलर कितने ब्यूटीफुल लग रहे है। इसी तरह गुड़िया को डॉल, गाय को काउ, चिड़िया को बर्ड कहना क्या शुरू हुआ, हिंदी का तो रूप ही बदलने लगा जो कतई सुन्दर न था, साथ ही अंग्रेजी के प्रति अनचाहे मोह और हिंदी के प्रति हीन भावना का परिचायक भी था। इससे हिंदी ही नहीं अंग्रेजी की गरिमा को भी धक्का लगा। अंग्रेजी के शब्दों की जानकारी बढ़ी पर वाक्य विन्यास अंगे्रजी का भी अधकचरा रह गया।
हिंदी में अंग्रेजी की इस मिलावट से हिंदी विकृत और प्राणहीन होने लगी। एक ओर विकृतियां बिना सोचे समझे दूसरी भाषा के शब्द लेने से आती है और दूसरी ओर शब्दों के अव्यवाहरिक अनुवाद से भी आती हैं। कुछ नई चीजें या उपकरण बनते हैं तो उनके अजीबोगरीब हिंदी अनुवाद कर दिऐ जाते हैं जो व्यावाहरिक नहीं होते, हास्यास्पद लगते हैं। भाषा का मजाक उड़ाना भी सही नहीं है। अब ट्रेन को कोई लौह पथ गामिनी तो कहेगा नहीं, इंटरनेट को भी अंतर्जाल कहना न सुविधाजनक है न व्यावहारिक। इसलिए ट्रेन, बस, कार, कम्प्यूटर, लैपटॉप जैसे शब्दों को हम वैसे का वैसा ही देवनागरी मे लिख सकते हैं, इनके हिंदी अनुवाद खोजना बिलकुल जरूरी नहीं है। रिपोर्ट को रपट लिखना टेक्निक को तकनीक लिखना भी हिंदी में स्वीकार हो चुका है।
हिंदी में इस प्रकार की विकृतियां बोलचाल की भाषा, टीवी, रेडियो, अखबारों, पत्रिकाओं और सिनेमा की भाषा में ही नहीं, पाठ्यपुस्तकों और साहित्य की विधाओं में भी हो रही हैं। पहले दूरदर्शन और आकाशवाणी के समाचारों की हिंदी खड़ी बोली के मानक रूप में थी, जो कतई कठिन नहीं थी, हिंदी भाषी सभी लोग समझ लेते थे। धीरे-धीरे निजी समाचार चैनलों की भरमार हो गई और समाचारों का बाजारीकरण हो गया। लोग बोलचाल की भाषा में जितनी अंग्रेजी की मिलावट करने लगे हैं, उससे ज़्यादा समाचार चैनल करते हैं। अखबार भी इनसे पीछे नहीं रहे, हिंदी के सरलीकरण के नाम पर इनमें भी अंगे्रजी शब्दों की बेहद भरमार होने लगी है। बस, लिपि देवनागरी होती है और वाक्य विन्यास हिंदी का होता है, शब्दावली तो सीधे अंग्रेजी से उठा ली जाती है। स्यूसाइड या मर्डर, लव ट्राई एंगल, सरकार प्रेंशर में, जैसे वाक्यांश पढ़कर लगता है कि क्या आत्महत्या, कत्ल, प्रेम त्रिकोण या दबाव कठिन शब्द हैं जिनके लिए अंग्रेजी शब्द लेने पड़े! क्या हिंदी का अखबार पढ़ने वाला पाठक ये शब्द नहीं जानता!
हिंदी में कई अच्छी साहित्यिक पत्रिकाएं उपलब्ध हैं, पर ये सभी गैर व्यावसायिक हैं। व्यावसायिक पत्रिकाएं चाहें समाचारों से जुड़ी हों, चाहे खेलकूद से या महिलाओं की पत्रिकाएं हों, सभी में बेवजह अंग्रेजी के शब्दों की भरमार रहती है। शायद इन्हें लगता है कि बिना अंगे्रजी शब्दों के बाहुल्य के सरल हिंदी नहीं लिखी जा सकती। शुद्ध, सरल, साफ सुथरी हिंदी का अर्थ है, हिंदी में क्लिष्ठ शब्दों की भरमार न हो और न ही बात को घुमा फिरा के कहा जाए। बस, सीधे-साधे शब्दों मे व्याकरणनिष्ठ भाषा लिखी जाए तो हिंदी समझने वाले लोग समझ लेंगे और भाषा की गरिमा बनी रहेगी।
यदि सिनेमा की बात करें तो यह माध्यम पूरी तरह व्यावसायिक होने के कारण इसमें भाषा की मर्यादा या शब्दों के चयन का केवल यही महत्व है कि वह जनमानस को पसंद आए। गाने भी ‘‘साड़ी के फॉल सा मैच किया रे, कभी छोड़ दिया रे कभी कैच किया रे’’ जैसे लिख दिए जाते हैं, जिनकी तुकबंदी और पैर थिरकने वाला संगीत जनता को भाता है। साहित्य मे चाहें गद्य हो या पद्य भाषा की शुद्धता बनी रहे तभी वह साहित्य होता है। केवल कहानी और उपन्यास में पात्रानुकूल भाषा का प्रयोग वार्तालाप में किया जा सकता है, परन्तु यह भी सीमित मात्रा में होना चाहिऐ।