डरी हुई ब्रिटिश सरकार ने आज ही दी थी भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी

Chhattisgarh Crimes

आज ही के दिन यानी 23 मार्च 1931 को क्रांतिकारी भगत सिंह, सुखदेव थापर और शिवराम राजगुरु को ब्रिटिश हुकूमत के दौरान फांसी की सजा सुनाई गई थी. तीनों ने लाला लाजपत राय का मौत का बदला लेने के लिए अंग्रेज पुलिस अधिकारी जेपी सांडर्स की हत्या कर दी थी. फांसी के समय आजादी के ये दीवाने बहुत कम उम्र के थे. इसके बाद से ही देश में 30 जनवरी के अलावा आज के दिन को भी शहीद दिवस के तौर पर मनाया जाता है.

देश में कई तारीखें शहीद दिवस के तौर पर मानी जाती हैं. इसमें महात्मा गांधी की हत्या के दिन यानी 30 जनवरी के बारे में अधिकतर लोग जानते हैं. इसके अलावा 23 मार्च को भी शहीद दिवस कहा जाता है क्योंकि इस रोज एक साथ तीन क्रांतिकारियों को लाहौर सेंट्रल जेल में फांसी दी गई थी. कई जगह इस बात का जिक्र है कि जिस दिन उन्हें फांसी दी गई थी उस दिन वो तीनों मुस्कुराते हुए आगे बढ़े और एक-दूसरे को गले से लगाया था.

वैसे राजगुरु, सुखदेव और भगतसिंह को फांसी एक रोज बाद मिलने वाली थी, लेकिन अंग्रेज सरकार को डर लगा कि कहीं कोई फसाद न हो जाए. तब तक इन तीनों युवाओं के बारे में देश का चप्पा-चप्पा जानने लगा था और उनकी सजा को लेकर आक्रोश भी दिखने लगा था. यही कारण है कि तीनों को एक दिन पहले बगैर किसी को खबर किए रातोंरात फांसी पर चढ़ा दिया गया, तब जाकर जानकारी जेल से बाहर निकल सकी.

सूली पर चढ़ते समय भगत सिंह की उम्र 24, राजगुरु की 23 और सुखदेव लगभग 24 साल के थे. इतनी कम उम्र में ही इन क्रांतिकारियों की कोशिशों से पूरी ब्रितानिया हुकूमत घबरा गई थी. हुआ ये था कि साल 1928 में राजगुरु, सुखदेव और भगतसिंह तीनों साथियों ने योजना बनाकर ब्रिटिश पुलिस अधिकारी जॉन सांडर्स की गोली मारकर हत्या कर दी थी. लाला लाजपत राय की मौत के जिम्मेदार इस अधिकारी की हत्या के बाद वे युवा चुप नहीं बैठे, बल्कि हुकूमत के खिलाफ अपना आक्रोश जताने के लिए सेंट्रल एसेंबली में बम फेंक दिया.

इसके बाद एसेंबली में अफरा-तफरी मच गई. चाहते तो वे आराम से निकल सकते थे लेकिन वे भागे नहीं, बल्कि मजबूती से वहीं खड़े रहे और साथ में पर्चे भी फेंकते रहे. उनका इरादा था कि इससे आजादी को लेकर जनभावना और भड़के. हुआ भी यही. लोग काबू में रहें, इसके लिए सरकार को लाहौर में धारा 144 लगा दी गई थी ताकि लोग जमा होकर किसी योजना को अंजाम न दे सकें.

कहा जाता है कि तीनों की फांसी माफ करवाने के लिए कई कद्दावर नेताओं ने सिफारिश की थी. यहां तक कि तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष पं. मदन मोहन मालवीय ने वायसराय के सामने सजा माफी के लिए अपील की थी लेकिन सारी ही अपीलें खारिज होती चली गईं. सरकार को डर था कि इन जोशीले क्रांतिकारियों का जिंदा रहना, फिर भले ही वो जेल में क्यों न हो, मुसीबत खड़ी कर सकता है और उनका बोरिया-बिस्तर उठवा सकता है.

राजनेता और लेखक एम एस गिल (M. S. Gill) की किताब ट्रायल्स दैट चेंज्ड हिस्ट्री (Trials that Changed History) के मुताबिक स्पेशल ट्रिब्युनल कोर्ट ने 7 अक्तूबर 1930 को IPC की धारा 121 और 302 और एक्सप्लोसिव सबस्टेंस एक्ट 1908 की धारा 4(बी) और 6(एफ) के तहत भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव की मौत की सजा का एलान किया था. जिसके बाद लोगों ने हजारों की संख्या में दस्तखत अभियान चलाकर वायसराय के पास भेजते हुए तीनों की फांसी रोकने की अपील की थी, हालांकि इससे भी अंग्रेज सरकार के इरादों पर कोई फर्क नहीं पड़ा.

फांसी से पहले भगतसिंह ने एक पत्र लिखा था, जिसमें उन्होंने आजादी का मोल समझाते हुए देश के युवाओं से आंदोलन का हिस्सा बनने को कहा था. उर्दू में लिखे पत्र का एक अंश आज भी काफी पढ़ा जाता है-

जीने की इच्छा मुझमें भी होनी चाहिए, मैं इसे छिपाना भी नहीं चाहता. आज एक शर्त पर जिंदा रह सकता हूं. अब मैं कैद होकर या पाबंद होकर जीना नहीं चाहता. मेरा नाम हिन्दुस्तानी क्रांति का प्रतीक बन चुका है. क्रांतिकारी दलों के आदर्शों और कुर्बानियों ने मुझे बहुत ऊंचा उठा दिया है, इतना ऊंचा कि जीवित रहने की स्थिति में इससे ऊंचा मैं हरगिज नहीं हो सकता. आज मेरी कमजोरियां जनता के सामने नहीं हैं. लेकिन अगर मैं फांसी से बच गया तो वे जाहिर हो जाएंगी और क्रांति का प्रतीक चिह्न मद्धम पड़ जाएगा. ऐसा भी हो सकता है कि मिट ही जाए. लेकिन मेरे हंसते-हंसते फांसी पर चढ़ने की सूरत में देश की माताएं अपने बच्चों के भगत सिंह की उम्मीद करेंगी. इससे आजादी के लिए कुर्बानी देने वालों की तादाद इतनी बढ़ जाएगी कि क्रांति को रोकना नामुमकिन हो जाएगा.

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