लगभग पौने दो साल पहले एक पोर्टल से जुड़े पत्रकार द्वारा भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश कार्यालय एकात्म परिसर में एक बैठक में अनधिकृत रूप से बैठक की कार्यवाही की वीडियोग्राफी से रोका जाना राजधानी के जिन पत्रकारों के आत्म-सम्मान को मर्माहत करने वाला लगा, वे सारे पत्रकार अपने एक साथी के साथ कांग्रेस के गुर्गों द्वारा की गई मारपीट की रिपोर्ट कराने थाने पहुँचे वरिष्ठ पत्रकार से पुलिस की मौजदूगी में और फिर सरेआम की गई जानलेवा मारपीट पर प्रदेश सरकार के आभारी होकर स्वयं को गौरवान्वित और सम्मानित महसूस कर रहे हैं। तभी तो भाजपा के खिलाफ हफ़्तों तम्बू तानकर बैठने वाले आत्मसम्मानी पत्रकारों को कमल शुक्ला के अनशन में शरीक होना, कमल शुक्ला का हालचाल जानना जरूरी नहीं लगता, तभी तो पत्रकार सुरक्षा कानून के नाम पर चल रही सरकारी लफ़्फाजी से आत्ममुग्ध पत्रकार कमल शुक्ला के समर्थन में प्रदर्शन की अपील करने वाले अपने ही साथियों की पहल को फर्जी बताकर और सरकार के आश्वासन को संतोषजनक बताकर अपने दायित्व का कुशलतापूर्वक निर्वहन करते नजर आ रहे हैं! अब राजधानी के पत्रकार भाग्य विधाता खुश हैं, खुश इसलिए हैं कि पिछले साल पत्रकार सुरक्षा कानून के अनशन पर बैठे इस पत्रकार को प्रदेश सरकार के वामपंथी सलाहकारों ने जो सब्जबाग दिखाए थे, अब वही कलमबाज वामपंथी सलाहकार अपने साथ हुई हिंसा पर कारगर कार्रवाई की मांग को लेकर अनशनरत पत्रकार का अनशन तुड़वाने के तमाम सियासी दाँव-पेंच आजमा रहे हैं! अब जबकि राजधानी के आत्म-सम्मान से भरपूर पत्रकारों का सीना गर्व से चौड़ा हो गया है तो फिर प्रदेश के सारे पत्रकारों की यह मजाल कि वे सरकार द्वारा प्रदत्त और अपने भाग्य-विधाता पत्रकारों द्वारा जाँचे-परखे जा चुके आत्म-सम्मान की तौहीन कर पत्रकार सुरक्षा कानून की आभासी-दुनिया से बाहर हाथ-पैर मारने की जुर्रत करें?
पर, एक बात सबको याद रखनी चाहिए समय की चक्की आवाज नहीं करती, पर पीसती बहुत महीन है आज किसी और की बारी है तो कल किसी और की बारी भी तो आएगी ही न! जय हो, जय हो…
काँकेर (उत्तर बस्तर) में पत्रकारों के साथ हुई हिंसा और राजधानी के पत्रकारों की भूमिका को लेकर फेसबुक पर प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार अनिल पुरोहित की टिप्पणी