प्रवीण खरे, छत्तीसगढ़ क्राइम्स
रायपुर। हमने अनेक नारे सुने हैं और नारों के चलते हुई राजनैतिक उथल-पुथल भी हमने देखी है, पर छत्तीसगढ़ कांग्रेस की राजनीति में इन दिनों जो नारे लगाए जा रहे हैं, उसके मायने क्या हैं? क्या कांग्रेस की छत्तीसगढ़ इकाई में गुटबाजी हावी हो गई है? जो कांग्रेस 2018 में एकजुट नज़र आ रही थी, क्या वह बिखरने के क़ग़ार पर है? ऐसे अनेक प्रश्न इन दिनों जनता और कांग्रेस के मैदानी कार्यकर्ताओं के मन में उथल-पुथल मचा रहे हैं। दरअसल जो दृश्य वर्तमान में दिख रहा है, उससे तो यही लगाता है कि वर्तमान में जो कांग्रेस छत्तीसगढ़ में दिख रही है, वह 2018 वाली कांग्रेस तो बिलकुल भी नहीं है। पूरी कांग्रेस पार्टी मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और स्वास्थ्य मंत्री टीएस सिंहदेव के सत्ता-संघर्ष में उलझकर रह गई है। दोनों के बीच इन दिनों जो सियासी कुश्ती चल रही है, उससे कांग्रेस के कार्यकर्ता ख़ुद को असहज महसूस कर रहे हैं जो प्रदेश कांग्रेस और सरकार के लिए अच्छे संकेत नहीं है।
आपको हम स्मरण करा दें कि 2018 के चुनाव में जय और वीरू की जोड़ी ही थी जिसने वह कमाल कर दिखाया था, जिसकी कलपना भी किसी ने नहीं की थी। एक ने ऐसा लोकलुभावन घोषणापत्र तैयार किया और दूसरे ने मुरझा चुके पार्टी कार्यकर्ताओं में ऐसी जान फूँकी कि नए जोश और उमंग से कार्यकर्ता फिर से उठ खड़े हुए और कांग्रेस को प्रचंड जीत हासिल हुई। इस जीत के पीछे जय और वीरू का कुशल चुनाव-संचालन तो था ही, उसके अलावा जो सबसे महत्त्वपूर्ण कारण था वह यह कि 15 साल की सत्ता के नशे में चूर भाजपा में गुटबाजी चरम पर थी और कार्यकर्ता हाशिए पर चले गए थे। भाजपा के नेताओं को लगता था कि हमें अब कोई हरा नहीं सकता हैं, और यही अति आत्मविश्वास उन्हें ले डूबा। जिन कार्यकर्ताओं के दम पर 15 साल भाजपा ने राज किया था, उन्हीं कार्यकर्ताओं ने अपनी उपेक्षा के चलते न तो पार्टी के उम्मीदवार को वोट किया और न ही प्रचार किया। या यूँ कहें, बीजेपी के ज़मीनी कार्यकर्त्ता घर पर बैठ गए। जब चुनाव परिणाम सामने आए, उसे देखकर भाजपा नेताओं के पैर के नीचे से ज़मीन ही सरक गई और एकजुट होकर चुनाव मैदान में उतरी कांग्रेस के हाथों में सत्ता आ गई।
अब ऐसा ही कुछ कांग्रेस में भी नज़र आने लगा है। जिस प्रकार से अपने-अपने नेताओं के लिए कार्यकर्त्ता नारेबाजी कर रहे हैं, उससे तो यह स्पष्ट हो जाता है कि पार्टी के अंदर ही गुटबाजी चरम पर है, वहीं दूसरी और नेता सत्ता के नशे में इस कदर चूर हैं। संघर्ष के दिनों में जिन कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने खून पसीना बहाया था, उनकी बातें सुनना तो दूर की बात है, आज उनकी ख़ैरियत पूछने वाला कोई नहीं है। हां, आयातित कांग्रेसियों की पूछ-परख ज़रूर है। दूसरी बात, इस तरह की नारेबाजी और गुटों में बंटी हुई कांग्रेस के जो मौजूदा हालात हैं, उसमें छत्तीसगढ़ कांग्रेस के सामने यह सवाल खड़ा होता है कि क्या आगामी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस अपनी नैय्या पार लगा लेगी? कांग्रेस के खेवनहारों के पास अभी भी वक़्त है और पूर्व की बातों से सबक लेते हुए अपनी स्थिति में सुधारकर पार्टी को इस तरह के नारेबाजी से बचाते हुए पार्टी को एकसूत्र में बांधना होगा, तब कहीं कांग्रेस पुनः सत्ता प्राप्त कर सकती है, वरना जो हाल 2018 में भाजपा का हुआ था, वह दृश्य कांग्रेस को न देखना पड़े।