आखिर एक ही मंत्री पद पर क्यों मान गए नीतीश कुमार

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नई दिल्ली। कैबिनेट फेरबदल को लेकर तमाम सियासी अटकलों और कयासों को ध्वस्त करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने मंत्रिमंडल का विस्तार कर लिया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की इस कैबिनेट टीम में जीत के ठीक दो साल बाद जनता दल यूनाइटेड यानी जदयू की एंट्री हुई है। मंत्रिमंडल विस्तार में एनडीए के घटक दल जेडीयू के एक मात्र नेता रामचंद्र प्रसाद सिंह यानी आरसीपी सिंह को जगह मिली। कभी जदयू कोटे से तीन-चार मंत्री पद की मांग करने वाले नीतीश कुमार को इस बार एक ही पद से संतोष करना पड़ा है। अब सवाल उठता है कि 2019 एक पद के लिए इनकार करने वाले नीतीश कुमार को अब वही एक पद कैसे स्वीकार हो गया।

दरअसल, इसके पीछे बीते दो सालों के सियासी घटनाक्रम हैं, जिसकी वजह से नीतीश कुमार को केंद्र में एक ही मंत्री पद से संतुष्ट होना पड़ा है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने साल 2019 में भाजपा की ओर से केंद्रीय कैबिनेट में एक मंत्री पद के ऑफर को ठुकरा दिया था। उस वक्त नीतीश कुमार ने चार मंत्री पद की मांग की थी, मगर जब पीएम मोदी ने उनकी मांग पर भाव नहीं दिया तो नीतीश कुमार ने शामिल होने से साफ तौर पर इनकार कर दिया और कहा था कि उनकी पार्टी सांकेतिक तौर पर मंत्रिमंडल में शामिल नहीं होगी। मगर हकीकत यह है कि दो साल बाद जब मंत्रिमंडल का विस्तार हुआ तब भी जदयू को एक ही मंत्री पद मिला।

यहां ध्यान देने वाली बात है कि साल 2019 के नीतीश और मौजूदा वक्त के नीतीश में काफी अंतर आ गया है। 2019 में नीतीश कुमार काफी मजबूत स्थिति में थे और उस वक्त वह फ्रंटफुट से खेल रहे थे, क्योंकि उनके पास विधायकों की संख्या भाजपा की तुलना में अधिक थी। मगर आज उनका वह तेवर गायब होता दिख रहा है। इसकी वजह है बिहार विधानसभा चुनाव 2020 का रिजल्ट। बिहार में चुनाव से पहले नीतीश कुमार की जदयू एनडीए गठबंधन में बड़े भाई की भूमिका में थी, मगर चुनाव के नतीजे आने के बाद बीजेपी बड़े भाई की भूमिका में आ गई।

2020 विधानसभा चुनाव में जेडीयू महज 43 सीट जीतने में सफल हो पाई, वहीं भाजपा ने 73 सीटों को जीतकर जदयू के काफीप समय से बढ़े सियासी भाव को एक झटके में कम कर दिया। लोकसभा चुनाव तक नीतीश कुमार का तेवर अलग ही दिखता था। उस वक्त 2019 में नीतीश कुमार ने भाजपा की ज्यादा सीटों की मांग को मानने से इनकार कर दिया था और बिहार की 40 लोकसभा सीटों पर भाजपा और जदयू ने फिफ्टी-फिफ्टी फॉर्मूला पर चुनाव लड़ा था। भाजपा और जदयू जहां 17-17 सीटों पर चुनाव लड़ी, वहीं 6 सीटे लोजपा के खाते में गई थी। इस चुनाव में जदयू, भाजपा से एक सीट कम ही जीत पाई। उसके बाद से ही भाजपा के सामने नीतीश कुमार की सियासी धमक कम होती दिखने लगी।

बहरहाल, जब केंद्रीय कैबिनेट को लेकर बुधवार को पत्रकारों ने सवाल किया तो उनकी भाषा में पुराना वाला तेवर नहीं दिखा। जदयू कोटे से मंत्री बनने के सवाल पर वह झेपते नजर आए और आरसीपी सिंह का हवाला देकर बचते दिखे। उन्होंने कहा कि भाजपा से बातचीत के लिए जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष आरसीपी सिंह ही अधिकृत हैं और वही फैसला लेंगे। इस बार नीतीश कुमार के एक मंत्री पद स्वीकार करने की अंदरखाने एक और वजह बताई जाती है कि कम संख्या के बाद भी नीतीश कुमार को बीजेपी ने मुख्यमंत्री बनाकर रखा है, इसलिए भी अब नीतीश कुमार पहले की तरह बार्गेनिंग करने की स्थिति में नहीं हैं।

इसके अलावा, सियासी गलियारों में इस बात की भी चर्चा है कि जिस तरह से विधानसभा चुनाव में चिराग पासवान ने नीतीश कुमार को चुनौती दी थी, उसे देखते हुए नीतीश ने पशुपति पारस के लिए बड़ा दिल दिखाकर सियासी दांव चला है। ऐसे कयास हैं कि चिराग पासवान को सबक सिखाने के वास्ते नीतीश कुमार ने थोड़ा त्याग किया है और लोजपा के कोटे से पशुपति कुमार पारस को मंत्री बनवाने में मदद की है। अंदरखाने ऐसी चर्चा थी कि आरसीपी सिंह और ललन सिंह दोनों जदयू कोटे से मंत्री बन सकते हैं, मगर अंत में फाइनल सिर्फ आरसीपी सिंह का नाम हुआ और लोजपा से पशुपति पारस का। पारस के प्रति नीतीश कुमार के झुकाव की खबरों को बल चिराग पासवान के उस बयान से भी मिलता है, जिसमें उन्होंने कहा है कि नीतीश कुमार ने पारस को मंत्री बनवाने के लिए ललन सिंह की कुर्बानी दी है।