राष्ट्रीय युवा दिवस; रायपुर में दो साल बिताए थे स्वामी विवेकानंद

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रायपुर. हर साल 12 जनवरी को राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है. इसी दिन भारतीय संस्कृति के महान नायक स्वामी विवेकानंद का जन्म हुआ था. भारतीय युवाओं में अध्यात्म की अलख जगाने वाले स्वामी विवेकानंद महान विचारकों में से एक हैं. रामकृष्ण मिशन के जरिए उन्होंने भारतीय संस्कृति के मूल्यों को दुनियाभर के लोगों के बीच पहुंचाने में अहम योगदान दिया. स्वामी विवेकानंद को हम संत, दार्शनिक, समाज सुधारक के तौर पर जानते हैं. स्वामी विवेकानंद भारतीय संस्कृति के महानायक थे और हमेशा रहेंगे. उन्होंने दो साल रायपुर में भी बिताए. इस दौरान जीवन की विविधताओं को समझा.

स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी को हुआ था और उनके जन्म दिन को राष्ट्रीय युवा दिवस के तौर पर मनाया जाता है. 1985 से हर साल 12 जनवरी स्वामी विवेकानंद की जयंती को राष्ट्रीय युवा दिवस के तौर पर मनाया जाता है और उस दिन से शुरू होने वाले सप्ताह को राष्ट्रीय युवा सप्ताह के रूप में मनाया जाता है. उठो, जागो और तब तक मत रुको जब तक लक्ष्य हासिल न हो जाए इस मंत्र को देने वाले स्वामी विवेकानंद को यूथ आइकॉन ऑफ इंडिया भी कहा जाता है.

स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी 1863 को कलकत्ता के एक मशहूर वकील विश्वनाथ दत्त के घर हुआ. माता भुवनेश्वरी देवी प्रेम से उन्हें वीरेश्वर पुकारती थी, लेकिन नामकरण संस्कार के समय उनका नाम नरेन्द्रनाथ दत्त रखा गया. बंगाली परिवार में जन्मे नरेन्द्र में बचपन से ही आध्यात्मिक पिपासा थी. परिवार के धार्मिक और आध्यात्मिक वातावरण के प्रभाव से बालक नरेन्द्र के मन में बचपन से धर्म और अध्यात्म के गहरे संस्कार पड़ गए. प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के बाद नरेंद्र को कलकत्ता के मेट्रोपोलिटन इंस्टीच्यूट् में दाखिल करवाया गया. पढ़ाई के साथ ही खेलने, संगीत सीखने, घुड़सवारी करने में उनकी रुचि थी. नरेन्द्र की स्मरण शक्ति अद्भुत थी.

शुरू में नरेन्द्र अंग्रेजी नहीं सीखना चाहते थे. उनका मानना था कि ये उन लोगों की भाषा है जिन लोगों ने उनकी मातृभूमि पर कब्जा कर रखा है. बाद में उन्होंने अंग्रेजी सीखना शुरू किया तो इस पर महारत हासिल कर लिया. बचपन से ही उनमें नेतृत्व का गुण था. वे सिर्फ कहने से किसी बात को नहीं मान लेते थे, बल्कि उसकी तार्किकता को परखने की भी कोशिश करते थे. संन्यासी बनने का विचार भी उनके बालमन में चलते रहता था. 14 साल की उम्र में बीमार पड़ने पर पिता विश्वनाथ दत्त ने नरेन्द्र को मध्यप्रदेश के रायपुर में बुला लिया. रायपुर में ही नरेंद्र ने जीवन की विविधताओं को समझा. रायपुर में दो साल तक रहने के बाद वे वापस कलकत्ता आ गए. 18 साल की उम्र में उन्होंने कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कॉलेज में दाखिला लिया. संसार की सच्चाई और सत्य की खोज जैसे प्रश्न उन्हें विद्रोही बनाने लगा. वे परंपराओं और रस्मों के प्रति भी सहज नहीं रहे. वे ईश्वर की मान्य धारणा के रहस्य को सुलझाने में बेचैन होने लगे.

1881 में उनकी भेंट स्वामी रामकृष्ण परमहंस से हुई. रामकृष्ण परमहंस कलकत्ता के दक्षिणेश्वर काली मंदिर के पुजारी थे. परमहंस से भेंट के बाद नरेंद्र के जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन आया. शुरुआत में उन्होंने परमहंस की बातों पर भी संशय किया, लेकिन उलझन और प्रतिवाद के बाद विवेकानंद ने परमहंस को अपना गुरु और मार्ग प्रदर्शक बना लिया. रामकृष्ण परमहंस ने ही विवेकानंद को आध्यात्मिक अनुशासन और चिंतन की दीक्षा दी. 1886 में रामकृष्ण परमहंस के निधन के बाद विवेकानंद के जीवन और कार्यों को नया मोड़ मिला. शरीर त्यागने से पहले परमहंस ने नरेंद्र को अपने सारे शिष्यों का प्रमुख घोषित कर दिया था. इसके बाद संन्यासी नाम विवेकानंद धारण कर उन्होंने बराहनगर मठ की स्थापना की और कई सालों तक भारतीय उपमहाद्वीप के अलग-अलग हिस्सों की यात्रा की. संन्यासी के रूप में भगवा वस्त्र धारण कर दंड और कमंडल लेकर देशभर की पैदल यात्रा की.

शिकागो धर्म संसद से दुनिया में हुए चर्चित

1893 में अमेरिका के शिकागो की विश्व धर्म संसद स्वामी विवेकानंद के जीवन में नया मोड़ साबित हुई. राजस्थान में खेतड़ी के राजा अजीत सिंह के आर्थिक सहयोग से स्वामी विवेकानन्द शिकागो के धर्म संसद में शामिल हुए. यहां उन्होंने भारत की ओर से सनातन धर्म का प्रतिनिधित्व किया. 11 सितंबर 1893 को धर्म संसद में विवेकानंद के दिए उत्कृष्ट भाषण से पूरी दुनिया में भारत का मान बढ़ा. 11 सितंबर 1893 को विश्व धर्म संसद में स्वामी विवेकानंद ने अपने भाषण के जरिए दुनिया को जो संदेश दिया था वो आज भी उतना ही प्रासंगिक है. इस भाषण से स्वामी विवेकानंद ने दुनियाभर में भारतीय संस्कृति को सम्मान दिलाने का काम किया.

विदेश में किया भारतीय संस्कृति का प्रचार

स्वामी विवेकनंद ने करीब चार साल तक अमेरिका के कई शहरों, लंदन और पेरिस में व्याख्यान दिए. उन्होंने जर्मनी, रूस और पूर्वी यूरोप की भी यात्राएं कीं. हर जगह उन्होंने वेदांत के संदेश का प्रचार किया. हर जगह उन्होंने समर्पित शिष्यों का समूह बनाया. चार साल के गहन उपदेशों के बाद विवेकानंद भारत लौटे. स्वामी विवेकानन्द ने 1 मई, 1897 को कलकत्ता के बेलूर में रामकृष्ण मिशन की स्थापना की. इसके जरिए रामकृष्ण परमहंस के विचारों के साथ ही वेदान्त ज्ञान के अध्ययन-प्रचार को सुनिश्चित किया.

दीन दुखियों की सेवा को बताया सबसे बड़ा धर्म

स्वामी विवेकानंद ने दीन दुखियों की सेवा को सबसे बड़ा धर्म बताया. विवेकानंद ने अपने साथियों और शिष्यों से कहा कि अगर वे ईश्वर की सेवा करना चाहते हैं तो गरीबों और जरुरतमंदों की सेवा करें. विवेकानंद का मानना था कि निर्धन और जरुरतमंदों के अंदर ही ईश्वर वास करता है. हालांकि अथक मेहनत की वजह से स्वामी विवेकानंद का स्वास्थ्य लगातार गिरते जा रहा था. दिसंबर 1898 में वे धर्म सम्मेलनों में हिस्सा लेने के लिए फिर से अमेरिका और यूरोपीय देशों में गए. वहां से भारत लौटने के बाद 4 जुलाई 1902 को विवेकानंद का बेलूर मठ में निधन हो गया. 39 साल की अल्प आयु में ही उन्होंने पूरी दुनिया में अध्यात्म की अलख जगा दी. विवेकानंद के विचार और कार्य आज भी मानव समाज को आलोकित कर रहा है.

स्वामी विवेकानंद की ईश्वर में थी गहरी आस्था

स्वामी विवेकानंद की ईश्वर में गहरी आस्था थी और उनकी आस्था की अभिव्यक्ति इस विश्वास में होती है कि ईश्वर में बिना आस्था रखे जीना असंभव है. विवेकानंद का कहना है कि ये संभव नहीं है कि हम जगत और आत्मा की सत्ता को स्वीकार कर लें और ईश्वर की सत्ता को नकार दें. विवेकानंद ईश्वर अस्तित्व को स्थापित करने का एक आधार सभी वस्तुओं में निहित एकत्व को मानते हैं. विवेकानंद ईश्वर के साक्षात् अनुभूति को भी संभव मानते हैं.

सार्वभौम धर्म के पक्षधर थे स्वामी विवेकानंद

विवेकानंद की मान्यता है कि मानव जाति के भाग्य को दिशा-निर्देश देने वाली शक्तियों में सबसे ज्यादा प्रभाव धर्म का ही रहता है. विवेकानंद का मानना है कि धर्म को कभी नकारा नहीं जा सकता. उनका कहना है कि धर्मों की विभिन्नता, उनका आपसी मतभेद और विवाद धर्मों के जीवन के लिए अनिवार्य है. धर्म सार्वभौम कैसे हो पाएगा, इस प्रश्न के समाधान में ही सार्वभौम धर्म का स्वरूप उभरता है. विवेकानंद का मानना है कि जैसे विश्व-बंधुत्व संभव है, वैसे ही सार्वभौम धर्म भी वास्तविक है.

विवेकानंद का कहना है कि वस्तुत: हर धर्म सार्वभौम धर्म है, लेकिन हम अपनी सुविधा और बाह्य उद्देश्यों की पूर्ति के लिए उस धर्म की सार्वभौमिकता की उपेक्षा कर उसे साम्प्रदायिक बना देते हैं. आगे चलकर वे स्पष्ट करते हैं कि सार्वभौम धर्म मानने का अर्थ अलग से किसी धर्म को मानने की आवश्यकता नहीं है. विवेकानंद कहते हैं कि सार्वभौम मानसिकता से सोचें तो हम सभी धर्मों की एक समानता को देख पाएंगे.