महासमुंद लोकसभा की 6 विधानसभा में आदिवासी समाज की भूमिका निर्णायक
नरेन्द्र धु्रव /छत्तीसगढ़ क्राइम्स
गरियाबंद। जल, जंगल और जमीन को बचा कर रखने तथा शहर के कोलाहाल से तंग लोग को शकुन देने वाला समाज अब राजनैतिक दलों से अपना हक मांग रहा है। गरियाबंद के मजरकट्टा गांव में 9 अगस्त को हजारों के तादाद में आदिवासी समाज घोषित रुप से विश्व आदिवासी दिवस मनाने एकत्र जरूर हुआ था, पर जिस तरह से आदिवासी समाज के नेताओं ने महासमुंद लोकसभा सीट पर राजनैतिक दलों से प्रतिनिधित्व दिए जाने की बात रखते हुए यह इशारे ही इशारे में यह स्पष्ट भी कर दिया की अब समाज उसी पार्टी को समर्थन देगा जो आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र में आदिवासियों को प्रतिनिधित्व (टिकिट) का अवसर देगा।
आदिवासी समाज के नेताओं ने यह भी कहा कि महासमुंद लोकसभा में हम तीस प्रतिशत से भी अधिक होने के बावजूद किसी भी राजनैतिक दलों ने हमे चुनाव लड़ने का अवसर नहीं दिया हैं और आदिवासियो को केवल वोट बैंक समझकर हमारा दोहन करते आए हैं। अब आदिवासी समाज अपना दोहन नहीं होने देगा क्योंकि समाज अब जागरूक और समझदार हो गया है और अब अपने अधिकारों को पहचानने लगा हैं। राजनैतिक दले इस भुलावे में ना रहें जो सदियों से चला आ रहा है वो अब भी जारी रहेगा। विश्व आदिवासी दिवस पर आदिवासियों के इस हुंकार के बाद महासमुंद लोक सभा सीट के लिए राजनैतिक दलों को सोचने पर विवश कर दिया है कि आदिवासियों को नजर अंदाज करना कहीं उन्हें भारी ना पढ़ जाए वहीं दूसरी और मुख्य राजनैतिक दल कांग्रेस और भाजपा में जो लोग इस सीट पर टकटकी लगाए बैठे हैं उन्हें आदिवासियों की दावेदारी करने की बात अंदर ही अंदर जोर का झटका लगा है।
यहां पर हम आपको बतादे की महासमुंद लोकसभा में बिंद्रन्नवगढ़ सहित राजिम, खल्लारी, महासमुंद, सराईपाली, बसना ऐसी 6 विधानसभा सीटे हैं जो आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र में आता है चुनाव में इस समाज की भुमिका नतीजा देने वाला होता है। अगर हम वर्तमान में महासमुंद लोकसभा की विधानसभा सीटों पर नजर डाले तो आधिकांश सीटों पर कांग्रेस का कब्जा है, वहीं महासमुंद लोक सभा सीट पर भाजपा का कब्जा है। आदिवासी समाज द्वारा लोकसभा सीट पर राजनैतिक दलों से प्रतिनिधित्व देने की मांग के बाद महासमुंद लोकसभा को नजदीक से समझने वाले राजनैतिक विशेषज्ञ भी मानते हैं कि आदिवासियों को हल्के में लेकर दीगर उम्मीदवार चुनाव मैदान में उतारना राजनैतिक दलों को भारी पड़ सकता है। उनका मानना है कि जो समाज सबकी भावनाओं का सम्मान करते आया हैं इससे पहले कभी भी आदिवासी समाज ने महासमुंद लोकसभा सीट के लिए इस तरह की बात नहीं रखी थी। हां यह जरूर है कि विधानसभा सीटों पर समाज ने दावेदारी रखी की हैं, पर इस बार विश्व आदिवासी दिवस पर समाज के नेताओं ने प्रतिनिधित्व देने की बात रखी है उससे राजनैतिक दलों के कान खड़े कर दिया है।
वहीं दूसरी और जिस तरह से आदिवासी समाज के अंदर से जो उभर कर सामने आई हैं उससे लगता हैं कि समाज का रुख इस बार बदला बदला सा नजर आ रहा है और ऐसा लगता हैं कि समाज ने इस बार यह मूड बना लिया है कि हमेशा की तरह अगर राजनैतिक दलों ने उनकी मांगों को दरकिनार कर समाज को सिर्फ वोट बैंक समझा तो समाज इस बार राजनैतिक दलों को सबक सिखाने से भी पीछे नहीं हटने वाली है। बहरहाल अभी लोकसभा चुनाव में वक्त है और ऊंट किस करवट बैठेगा यह समय के गर्भ में छुपा हुआ है।